सोमवार, 12 अक्तूबर 2009

ठहाकामार गुटका

ठहाकामार गुटका

हमारे मित्र डा.मेवाराम गुप्ता ने तो रोते-बिसूरते मानव-समाज का कल्याण करना चाहा था। लेकिन समाज उनके काम को कल्याण नहीं समझा। उनके खिलाफ़ आंदोलन चलाया और उनकी चामत्कारिक दवाई 'ठहाकामार गुटका' को क़ानूनन बंद करा दिया। हमारी सरकार भी बड़ी 'असरकार' है। वह बंद करने और खोलने में बड़ी माहिर है। जब वह बंद करने पर आती है तो बड़े-बड़े धर्मात्माओं को और बड़ी-से-बड़ी कल्याणकारी योजनाओं को चुटकी बजाते बंद कर देती है और जब खोलने पर आती है तो नेताओं-महात्माओं के लिए बैंकों के द्वार ही नहीं, विदेशियों तक के लिए अपने द्वार खोल देती है। अपनी आदत के अनुसार जब सरकार बंद करने पर आई तो उसने जनता के दबाव में उतना नहीं जितना अपने चरित्र पर मँडरा रहे खतरे को देखते हुए मेवाराम गुप्ता द्वारा बनाए गए 'ठहाकामार गुटके' पर पूर्ण पाबंदी लगा दी। बनाने-बेचने और खाने-खिलाने सब पर। इस तरह हमारे मित्र डा.मेवाराम गुप्ता का अद्भुत आविष्कार समाज का कल्याण करते-करते रह गया। पाबंदी के तुरंत बाद हम डा.मेवाराम गुप्ता से मिले तो वे गंभीर मुद्रा में बैठे थे। बोले-
'जब सरकार “मेवा” को जनसेवा नहीं करने देना चाहती है तो कोई कर भी क्या सकता है? सरकार तो लोगों को रुलाना चाहती है, कभी महँगाई से, कभी ग़रीबी से, कभी टैक्स बढ़ाकर, कभी दाम बढ़ाकर। वह जनता को हँसते हुए देखना ही नहीं चाहती है तो हम क्या कर सकते हैं?
बात तो सोलह आने सही थी डा.मेवाराम गुप्ता जी की। हमने सहमति में गर्दन हिलाई और आँखों में झूठे आँसू लाने का प्रयास किया। आँसू हों या हँसी इस युग में झूठे नहीं हैं तो कुछ भी नहीं। सच्चे आँसू और सच्ची हँसी तो अब सिर्फ़ मूर्खों के यहाँ मिलते हैं, समझदार तो इनसे कब का दामन झाड़ चुके हैं।
डा.मेवाराम जी कई वर्षों से एक ऐसी बूटी की तलाश में थे, जिसका सेवन करते ही दुखी-से-दुखी आदमी भी ठहाका मारकर हँसने लगे। इस तलाश में वह जंगल-जंगल, पर्वत-पर्वत, मारे-मारे फिरे, दिन-रात सिर खपाते रहे। जब देखो, किसी-न-किसी बूटी पर, किसी-न-किसी झाड़ी पर अनुसंधान कर रहे हैं। न खाने की सुध, न पीने की, न सोने की, न जागने की। उन्हें एकमात्र चिंता यही थी कि आदमी दिन-रात बढ़ते हुए दु:खों के चंगुल में फँसकर हँसना भूलता जा रहा है। किसी दिन आदमी पूरी तरह हँसना भूल गया तो उसमें और पशुओं में कोई अंतर नहीं रहेगा। वह आदमी को सामाजिक जानवर नहीं, हँसने वाला जानवर मानते थे। वह मानते थे कि हँसने का गुण ही आदमी को अन्य प्राणियों से अलग करता है। उनका कहना था कि जो प्राणी हँस नहीं सकते, वही हिंसक होते हैं, हँसने वाला प्राणी हिंसक हो ही नहीं सकता और चूँकि आदमी अब ज़्यादा-से-ज़्यादा हिंसक होता जा रहा है तो उसका एकमात्र कारण यही है कि वह हँसना भूलता या छोड़ता जा रहा है। यही सोचकर उन्होंने हँसाने वाली बूटियों की खोज आरंभ की। और जैसा कि शास्त्रों में लिखा है कि आदमी को मेहनत का फल अवश्य मिलता है, डा.मेवाराम गुप्ता को भी मेहनत का फल मिला और वे रोते आदमी को हँसाने वाला चूर्ण यानी 'ठहाका मार गुटका' तैयार करने में कामयाब हो गए।
शामत के मारे या यों कहिए किस्मत के मारे हम एक दिन उनके छोटे से क्लिनिक में गए तो यह देखकर चकित रह गए कि श्रीमान मेवाराम गुप्ता अपनी कुर्सी में बैठे-बैठे फुटबाल की तरह उछल रहे हैं। उनके मुँह से लगातार क़हक़हे फूट रहे हैं और वह क़हक़हों के बीच कहते चले जा रहे हैं 'मिल गया-मिल गया।'
थोड़ी देर बार उन्हें क़हक़हों से थोड़ा छुटकारा मिला तो हमने पूछा, 'क्या मिल गया भाई मेवाराम जी?'
वह हँसी के बीच बोले, 'नुस्खा हँसाने वाली बूटी का।' हमने थोड़ी प्रतीक्षा की। जब गुटके का असर थोड़ा ढीला पड़ा तो हमने पूछा, 'बताओ तो सही मेवाराम जी, बात क्या है?'
बोले, 'जिस बूटी की बारह साल से खोज में था, वह मिल गई। अब तुम देखना कि एक मेरे ही नहीं, इस पूरे समाज के दिन फिर जाएँगे।' हमने प्यार से उत्तर दिया, 'भाई मेवाराम, बारह साल में तो कूड़ी के दिन भी फिर जाते हैं, आप तो आदमी हैं, और आदमी से ज़्यादा डाक्टर हैं।'
'चाँदी का ढेर लग जाएगा बच्चू, चाँदी का। कोई रोता आदमी दिखाई नहीं देगा पूरी दुनिया में। आदमी हँसी चाहता है, खुशी चाहता है। यह हँसी उसे डा.मेवाराम का 'ठहाकामार गुटका' देगा, 'ठहाका मार गुटका।'
हमने कहा, 'इसकी कुछ विशेषताएँ तो बताइए।'
बोले, 'विशेषताएँ नहीं, विशेषता कहो, विशेषता! इस गुटके की एकमात्र विशेषता यह है कि दु:खी-से-दु:खी व्यक्ति भी एक बार इसका सेवन कर ले तो कम-से-कम तीन घंटे तक ठहाका मारकर हँसता रहे। सारे दु:ख, सारी चिंताएँ, सारे ग़म उसके लिए व्यर्थ होकर रह जाएँ।'
हमने सुना तो चकित रह गए। डा.मेवाराम का बयान जारी रहा, 'इस गुटके का पहला प्रयोग हमने अपने ऊपर किया। सुबह सात बजे गुटका लिया था और दस बजे तक हम लगातार हँसते रहे। इतना हँसे, इतना हँसे कि पेट में बल पड़ गए। अब यह प्रयोग दूसरों पर करना है। गुटके को लोकप्रिय बनाने के लिए हम एक विस्तृत योजना बनाने के मूड में हैं।'
हमने हस्तक्षेप किया, 'योजना से क्या मतलब है मेवाराम जी? सरकार की तरह किसी पंचवर्षीय योजना पर तो विचार करना है नहीं, चुपके से शहर के सौ डेढ़ सौ गणमान्य व्यक्तियों को आमंत्रित कीजिए और इस औषधि की अद्भुत विशेषता का बखान करते हुए गुटके का एक-एक पैकिट नमूने के तौर पर नि:शुल्क बाँट दीजिए। पि र देखो सारे शहर में डंका पिट जाएगा।'
हमें लगा, भाई मेवाराम जी हमारी बात से काफ़ी कुछ सहमत हो गए हैं। तय हुआ कि न्यू पैलेस होटल में शहर के छँटे हुए सौ व्यक्तियों को आमंत्रित किया जाए और उन्हें 'ठहाका मार गुटके' का एक-एक पाउच नमूने के तौर पर बाँट दिया जाए। इसके बाद हमने और हमारे मित्र डा.मेवाराम ने निमंत्रण-पत्र का मजमून तैयार किया, जो इस प्रकार था-
'आइए-आइए, अपने दु:ख मिटाइए, हँसिए-हँसाइए, दु:ख-दर्द से छुटकारा पाइए। हमारी फर्म द्वारा तैयार 'ठहाका मार गुटके' का सिर्फ़ एक पाउच लीजिए फिर देखिए चमत्कार, हँसी की बौछार। मुफ़्त-मुफ़्त आज के दिन मुफ़्त! आइए, आइए मेहरबान, हम आपको हँसी देंगे, ठहाका देंगे, एक बार तजुर्बा शर्त है।'
निश्चित तिथि को न्यू पैलेस होटल में सभी आमंत्रित महापुरुष एकत्र हो गए। भाई डा.मेवाराम ने जलपान से सबका स्वागत किया। इसके बाद अपने द्वारा आविष्कृत गुटके के गुण बताए। उन्होंने कहा-
'भाइयो! गुटके आपने बहुत प्रयोग किए होंगे। मुग़लेआजम से छोटूमल के गुटके तक। पर जो बात इस गुटके में है, वह किसी और गुटके में नहीं। इसकी सबसे बड़ी विशेषता यह है कि सेवन के पंद्रह मिनट बाद ही यह दु:खी-से-दु:खी इंसान को हँसने पर मजबूर कर देता है। उसके अधरों पर क़हक़हे इस प्रकार नाचने लगते हैं जैसे वर्षा होते ही जंगल में मोर नाचने लगते हैं। पर मोर तो जंगल में नाचता है, आप बस्ती में नाचेंगे और भाइयो, यह भी आप जानते हैं कि चिंताओं से घिरे आज के आदमी को जितनी ज़रूरत हँसी की है, उतनी किसी और चीज़ की नहीं है। अंधा क्या चाहे दो आँखें और रोता क्या चाहे- बोलो-बोलो।'
श्रोताओं ने नारा लगाया, 'हँसी-हँसी।'
मेवाराम आगे बढ़े, 'हमने अपने बारह बरस के अनुसंधान के बाद एक यह अद्भुत गुटका तैयार किया है 'ठहाका मार गुटका'। इसकी एक ही खुराक आपकी सारी चिंताओं को इस प्रकार भगा देगी जैसे गृहिणी घर में काँव-काँव करते कौओं को भगा देती है। इसमें कोई नशा नहीं है। यह शुद्ध बूटी से बनाई गई औषधि है। सुबह उठिए, निहार-मुँह इसका सेवन कीजिए, पि र देखिए कुदरत का तमाशा, माफ़ कीजिए गुटके का तमाशा। आप हँसते-हँसते लोटन कबूतर न हो जाएँ तो हमारा जिम्मा। लीजिए लीजिए, हाथ बढ़ाइए।'
लोग डा.मेवाराम द्वारा बनाया गया 'ठहाका मार गुटका' लेने के लिए क़तार बनाकर खड़े हो गए। मेवाराम पाउच बाँट रहे थे और लोग पाउच लेकर विदा हो रहे थे। मेहमानों को विदाई देकर बोलेे मेवाराम, 'भाई, तुम सुबह दो-चार जगह जाकर देखना कि गुटके का प्रभाव क्या होता है लोगों पर।'
हमने हामी भरी, 'अवश्य जाएँगे, यह तमाशा तो देखते लायक होगा।'
सो हम सुबह-सवेरे उठते ही सबसे पहले सेठ मटरूमल के यहाँ आ धमके। देखते क्या हैं कि सेठ मटरूमल जी का हँसते-हँसते बुरा हाल हो रहा है। बेबात हँस रहे हैं और हँसे जा रहे हैं। हमने खैरियत खैरसल्ला पूछी, बड़ी मुश्किल से हँसी के बीच बोले, 'यार, अपने मित्र छकड़ूमल जी हैं ना उनकी धर्मपत्नी का देहांत हो गया है रात। अभी-अभी सूचना मिली है। चलो, शोक व्यक्त करते आएँ दो मिनट को।'
हमने कहा, 'चलिए।'
ठहाका मारकर मटरूमल जी रिक्शा में बैठे और पहुँच गए छकडूमल के द्वार पर। काफ़ी लोग लोग इकट्ठे थे वहाँ। चेहरे पर दु:ख और आँखों में झूठे आँसुओं का सैलाब उमड़ पड़ रहा था।
मटरूमल ने पहुँचते ही ठहाका लगाया, 'हा-हा-हा, क्यों बे छकडूमल! क्या हुआ!'
छकडूमल ने मटरूमल को बेतहाशा हँसते हुए देखा तो आगबबूला हो गया। बोला-'मेरी पत्नी मर गई और तुम हँस रहे हो, शर्म नहीं आती तुम्हें।'
'शर्म नहीं आती तुम्हें!' पुन: ठहाका मारकर मटरूमल बोले, 'अबे उल्लू की दुम! धर्मपत्नी ही मरी है, धर्म तो नहीं मरा है अभी। यानी धर्मपत्नी का एक भाग जो पत्नी के रूप में था मर गया। वही मरा है ना, धर्म तो नहीं मरा।'
भीड़ इकट्ठी हो गई- 'मौत पर हँसते हो, शर्म नहीं आती तुम्हें!'
फिर ठहाका मारा मटरूमल ने- 'बोले, अबे रोना तो दकियानूसियों का काम है, रोने से मरने वाला जीवित थोड़े ही हो जाता है। हँसो कि हँसना आदमी का जन्मसिद्ध अधिकार है...।'
कई लोग उत्तेजित हो गए। एक आगे बढ़ा और सेठ मटरूमल का गिरेबान पकड़ते हुए बोला, 'हँसना आदमी का जन्मसिद्ध अधिकार है तो पिटना भी उसका जन्मसिद्ध अधिकर है।' कई जूते मटरूमल की गंजी खोपड़ी पर पड़े पर उनके ठहाके नहीं रुकने थे, न रुके। हमने जूतमपैजार का यह तमाशा देखा तो चोर की तरह वहाँ से दबे पाँव खिसक लिए। अब यह भगवान ही जाने कि बेचारे मटरूमल पर चढ़ी हँसी का भूत कब उतरा और कैसे उतरा पर हमें विश्वास हो गया कि गुटके ने अपना काम पूरा किया।
आगे बढ़े तो एक हड्डी विशेषज्ञ की क्लिनिक में काफ़ी लोगों की भीड़ जमा थी। देखते क्या हैं कि दुर्घटना में दोनों पैरों से अपाहिज एक नौजवान के सिरहाने खड़ा उसका बाप बेतहाशा ठहाके लगा रहा है ... ।
'अबे पैर ही तो टूटे हैं, जीवन की डोर तो नहीं टूटी है, घबड़ाता क्यों है। (ठहाका) धरती पर चलता तो दु:ख झेलता। अब पड़े रहकर सपने बुना कर सुंदर-सुंदर। (फिर ठहाका) अबे उल्लू जब लँगड़ी सरकारें चल सकती हैं तो तू क्यों नहीं चल सकता, लँगड़ा होकर। हा-हा। हँसो भाई, हँसो, हर दु:ख पर हँसो कि हँसना आदमी का जन्मसिद्ध अधिकार है।'
भीड़ में से आवाज़ आई, 'अबे तू बाप है या कसाई?'
हँसने वाले व्यक्ति ने फिर एक क़हक़हा मारा। डाक्टर ने आर्डर दिया, 'इसे बाहर निकालो क्लिनिक से।' कई लोगों ने उसे खींचकर बाहर निकालना चाहा। दोनों पक्षों में खींचातानी हुई और वही मारामारी का दृश्य उत्पन्न हो गया। हमने खैरियत इसी में समझी कि चुपके से चोर की तरह दबे पाँव वहाँ से खिसक लिए....।
आगे कहीं और जाने की हिम्मत नहीं हुई। शाम को डा.मेवाराम जी के यहाँ पहुँचे तो वहाँ ऐसे समाचारों का ढेर लगा हुआ था, जिनमें गुटका खाकर हँसने वालों की जमकर पिटाई हुई थी। कई लोग घायल हुए थे। अनेक स्थानों पर शांति-व्यवस्था भंग हो गई थी।
हमने कहा, 'भाई मेवाराम जी! गुटके में तो आपके कमी नहीं है कुछ। आदमी स्वयं ही नहीं हँसना चाहता, वह हँसते हुओं को देखना भी नहीं चाहता, इसलिए गड़बड़ हो गई है सारी।'
हमने देखा डा.मेवाराम जी चिंता में डूब गए हैं। इतने में ही शोर सुनाई दिया। क्लिनिक से बाहर निकलकर देखा। गुटका खाने वाले सभी व्यक्ति हाथों में बैनर लिए हुए थे। वे ठहाका मार गुटके पर पाबंदी लगाने की माँग करते हुए आगे बढ़ रहे थे। खतरा सामने था। कहीं भीड़ क्लिनिक पर आकर तोड़-फोड़ न करे, इसलिए हम दोनों क्लिनिक में ताला ठोंककर छत पर चढ़ गए ... उत्तेजित जुलूस धीरे-धीरे आगे बढ़ गया।
खतरा टला तो डा. मेवाराम बोले, 'आदमी जब रोना ही चाहता है तो हम क्या कर सकते हैं? महँगाई रुलाती है, बेरोज़गारी रुलाती है, टैक्स रुलाते हैं, दिन पर दिन घटती हुई आय रुलाती है, अपराध रुलाते हैं, सरकार रुलाती है तो संतुष्ट रहते हैं पर जब डा.मेवाराम हँसाना चाहता है तो बबाल उठ खड़ा होता है।'
मेवाराम ने लंबी ठंडी साँस खींची और फिर ठहाकामार गुटके का एक पाउच अपने गले से नीचे उतार लिया। अभी उन पर हँसी का दौरा पड़ना शुरू ही हुआ था कि अचानक एक रोगी अपने तीमारदारों सहित क्लिनिक में दाखिल हुआ किंतु यह देखते ही रफूचक्कर हो गया कि डाक्टर हँसी के मारे लोटपोट हो रहा है। हमने कहा, 'तुम ठीक कहते हो डाक्टर। आदमी को हँसी की ज़रूरत नहीं सहानुभूति की ज़रूरत है और सहानुभूति की भावना जाग्रत करने के लिए तुम्हें एक और बूटी की खोज करनी होगी।' हमने देखा तो डाक्टर हमारी बात सुनकर हँसे जा रहा है। हँसे ही जा रहा है बस।
डा. गिरिराजशरण अग्रवाल
16 साहित्य विहार, बिजनौर
09368141411