सोमवार, 12 अक्तूबर 2009

ठहाकामार गुटका

ठहाकामार गुटका

हमारे मित्र डा.मेवाराम गुप्ता ने तो रोते-बिसूरते मानव-समाज का कल्याण करना चाहा था। लेकिन समाज उनके काम को कल्याण नहीं समझा। उनके खिलाफ़ आंदोलन चलाया और उनकी चामत्कारिक दवाई 'ठहाकामार गुटका' को क़ानूनन बंद करा दिया। हमारी सरकार भी बड़ी 'असरकार' है। वह बंद करने और खोलने में बड़ी माहिर है। जब वह बंद करने पर आती है तो बड़े-बड़े धर्मात्माओं को और बड़ी-से-बड़ी कल्याणकारी योजनाओं को चुटकी बजाते बंद कर देती है और जब खोलने पर आती है तो नेताओं-महात्माओं के लिए बैंकों के द्वार ही नहीं, विदेशियों तक के लिए अपने द्वार खोल देती है। अपनी आदत के अनुसार जब सरकार बंद करने पर आई तो उसने जनता के दबाव में उतना नहीं जितना अपने चरित्र पर मँडरा रहे खतरे को देखते हुए मेवाराम गुप्ता द्वारा बनाए गए 'ठहाकामार गुटके' पर पूर्ण पाबंदी लगा दी। बनाने-बेचने और खाने-खिलाने सब पर। इस तरह हमारे मित्र डा.मेवाराम गुप्ता का अद्भुत आविष्कार समाज का कल्याण करते-करते रह गया। पाबंदी के तुरंत बाद हम डा.मेवाराम गुप्ता से मिले तो वे गंभीर मुद्रा में बैठे थे। बोले-
'जब सरकार “मेवा” को जनसेवा नहीं करने देना चाहती है तो कोई कर भी क्या सकता है? सरकार तो लोगों को रुलाना चाहती है, कभी महँगाई से, कभी ग़रीबी से, कभी टैक्स बढ़ाकर, कभी दाम बढ़ाकर। वह जनता को हँसते हुए देखना ही नहीं चाहती है तो हम क्या कर सकते हैं?
बात तो सोलह आने सही थी डा.मेवाराम गुप्ता जी की। हमने सहमति में गर्दन हिलाई और आँखों में झूठे आँसू लाने का प्रयास किया। आँसू हों या हँसी इस युग में झूठे नहीं हैं तो कुछ भी नहीं। सच्चे आँसू और सच्ची हँसी तो अब सिर्फ़ मूर्खों के यहाँ मिलते हैं, समझदार तो इनसे कब का दामन झाड़ चुके हैं।
डा.मेवाराम जी कई वर्षों से एक ऐसी बूटी की तलाश में थे, जिसका सेवन करते ही दुखी-से-दुखी आदमी भी ठहाका मारकर हँसने लगे। इस तलाश में वह जंगल-जंगल, पर्वत-पर्वत, मारे-मारे फिरे, दिन-रात सिर खपाते रहे। जब देखो, किसी-न-किसी बूटी पर, किसी-न-किसी झाड़ी पर अनुसंधान कर रहे हैं। न खाने की सुध, न पीने की, न सोने की, न जागने की। उन्हें एकमात्र चिंता यही थी कि आदमी दिन-रात बढ़ते हुए दु:खों के चंगुल में फँसकर हँसना भूलता जा रहा है। किसी दिन आदमी पूरी तरह हँसना भूल गया तो उसमें और पशुओं में कोई अंतर नहीं रहेगा। वह आदमी को सामाजिक जानवर नहीं, हँसने वाला जानवर मानते थे। वह मानते थे कि हँसने का गुण ही आदमी को अन्य प्राणियों से अलग करता है। उनका कहना था कि जो प्राणी हँस नहीं सकते, वही हिंसक होते हैं, हँसने वाला प्राणी हिंसक हो ही नहीं सकता और चूँकि आदमी अब ज़्यादा-से-ज़्यादा हिंसक होता जा रहा है तो उसका एकमात्र कारण यही है कि वह हँसना भूलता या छोड़ता जा रहा है। यही सोचकर उन्होंने हँसाने वाली बूटियों की खोज आरंभ की। और जैसा कि शास्त्रों में लिखा है कि आदमी को मेहनत का फल अवश्य मिलता है, डा.मेवाराम गुप्ता को भी मेहनत का फल मिला और वे रोते आदमी को हँसाने वाला चूर्ण यानी 'ठहाका मार गुटका' तैयार करने में कामयाब हो गए।
शामत के मारे या यों कहिए किस्मत के मारे हम एक दिन उनके छोटे से क्लिनिक में गए तो यह देखकर चकित रह गए कि श्रीमान मेवाराम गुप्ता अपनी कुर्सी में बैठे-बैठे फुटबाल की तरह उछल रहे हैं। उनके मुँह से लगातार क़हक़हे फूट रहे हैं और वह क़हक़हों के बीच कहते चले जा रहे हैं 'मिल गया-मिल गया।'
थोड़ी देर बार उन्हें क़हक़हों से थोड़ा छुटकारा मिला तो हमने पूछा, 'क्या मिल गया भाई मेवाराम जी?'
वह हँसी के बीच बोले, 'नुस्खा हँसाने वाली बूटी का।' हमने थोड़ी प्रतीक्षा की। जब गुटके का असर थोड़ा ढीला पड़ा तो हमने पूछा, 'बताओ तो सही मेवाराम जी, बात क्या है?'
बोले, 'जिस बूटी की बारह साल से खोज में था, वह मिल गई। अब तुम देखना कि एक मेरे ही नहीं, इस पूरे समाज के दिन फिर जाएँगे।' हमने प्यार से उत्तर दिया, 'भाई मेवाराम, बारह साल में तो कूड़ी के दिन भी फिर जाते हैं, आप तो आदमी हैं, और आदमी से ज़्यादा डाक्टर हैं।'
'चाँदी का ढेर लग जाएगा बच्चू, चाँदी का। कोई रोता आदमी दिखाई नहीं देगा पूरी दुनिया में। आदमी हँसी चाहता है, खुशी चाहता है। यह हँसी उसे डा.मेवाराम का 'ठहाकामार गुटका' देगा, 'ठहाका मार गुटका।'
हमने कहा, 'इसकी कुछ विशेषताएँ तो बताइए।'
बोले, 'विशेषताएँ नहीं, विशेषता कहो, विशेषता! इस गुटके की एकमात्र विशेषता यह है कि दु:खी-से-दु:खी व्यक्ति भी एक बार इसका सेवन कर ले तो कम-से-कम तीन घंटे तक ठहाका मारकर हँसता रहे। सारे दु:ख, सारी चिंताएँ, सारे ग़म उसके लिए व्यर्थ होकर रह जाएँ।'
हमने सुना तो चकित रह गए। डा.मेवाराम का बयान जारी रहा, 'इस गुटके का पहला प्रयोग हमने अपने ऊपर किया। सुबह सात बजे गुटका लिया था और दस बजे तक हम लगातार हँसते रहे। इतना हँसे, इतना हँसे कि पेट में बल पड़ गए। अब यह प्रयोग दूसरों पर करना है। गुटके को लोकप्रिय बनाने के लिए हम एक विस्तृत योजना बनाने के मूड में हैं।'
हमने हस्तक्षेप किया, 'योजना से क्या मतलब है मेवाराम जी? सरकार की तरह किसी पंचवर्षीय योजना पर तो विचार करना है नहीं, चुपके से शहर के सौ डेढ़ सौ गणमान्य व्यक्तियों को आमंत्रित कीजिए और इस औषधि की अद्भुत विशेषता का बखान करते हुए गुटके का एक-एक पैकिट नमूने के तौर पर नि:शुल्क बाँट दीजिए। पि र देखो सारे शहर में डंका पिट जाएगा।'
हमें लगा, भाई मेवाराम जी हमारी बात से काफ़ी कुछ सहमत हो गए हैं। तय हुआ कि न्यू पैलेस होटल में शहर के छँटे हुए सौ व्यक्तियों को आमंत्रित किया जाए और उन्हें 'ठहाका मार गुटके' का एक-एक पाउच नमूने के तौर पर बाँट दिया जाए। इसके बाद हमने और हमारे मित्र डा.मेवाराम ने निमंत्रण-पत्र का मजमून तैयार किया, जो इस प्रकार था-
'आइए-आइए, अपने दु:ख मिटाइए, हँसिए-हँसाइए, दु:ख-दर्द से छुटकारा पाइए। हमारी फर्म द्वारा तैयार 'ठहाका मार गुटके' का सिर्फ़ एक पाउच लीजिए फिर देखिए चमत्कार, हँसी की बौछार। मुफ़्त-मुफ़्त आज के दिन मुफ़्त! आइए, आइए मेहरबान, हम आपको हँसी देंगे, ठहाका देंगे, एक बार तजुर्बा शर्त है।'
निश्चित तिथि को न्यू पैलेस होटल में सभी आमंत्रित महापुरुष एकत्र हो गए। भाई डा.मेवाराम ने जलपान से सबका स्वागत किया। इसके बाद अपने द्वारा आविष्कृत गुटके के गुण बताए। उन्होंने कहा-
'भाइयो! गुटके आपने बहुत प्रयोग किए होंगे। मुग़लेआजम से छोटूमल के गुटके तक। पर जो बात इस गुटके में है, वह किसी और गुटके में नहीं। इसकी सबसे बड़ी विशेषता यह है कि सेवन के पंद्रह मिनट बाद ही यह दु:खी-से-दु:खी इंसान को हँसने पर मजबूर कर देता है। उसके अधरों पर क़हक़हे इस प्रकार नाचने लगते हैं जैसे वर्षा होते ही जंगल में मोर नाचने लगते हैं। पर मोर तो जंगल में नाचता है, आप बस्ती में नाचेंगे और भाइयो, यह भी आप जानते हैं कि चिंताओं से घिरे आज के आदमी को जितनी ज़रूरत हँसी की है, उतनी किसी और चीज़ की नहीं है। अंधा क्या चाहे दो आँखें और रोता क्या चाहे- बोलो-बोलो।'
श्रोताओं ने नारा लगाया, 'हँसी-हँसी।'
मेवाराम आगे बढ़े, 'हमने अपने बारह बरस के अनुसंधान के बाद एक यह अद्भुत गुटका तैयार किया है 'ठहाका मार गुटका'। इसकी एक ही खुराक आपकी सारी चिंताओं को इस प्रकार भगा देगी जैसे गृहिणी घर में काँव-काँव करते कौओं को भगा देती है। इसमें कोई नशा नहीं है। यह शुद्ध बूटी से बनाई गई औषधि है। सुबह उठिए, निहार-मुँह इसका सेवन कीजिए, पि र देखिए कुदरत का तमाशा, माफ़ कीजिए गुटके का तमाशा। आप हँसते-हँसते लोटन कबूतर न हो जाएँ तो हमारा जिम्मा। लीजिए लीजिए, हाथ बढ़ाइए।'
लोग डा.मेवाराम द्वारा बनाया गया 'ठहाका मार गुटका' लेने के लिए क़तार बनाकर खड़े हो गए। मेवाराम पाउच बाँट रहे थे और लोग पाउच लेकर विदा हो रहे थे। मेहमानों को विदाई देकर बोलेे मेवाराम, 'भाई, तुम सुबह दो-चार जगह जाकर देखना कि गुटके का प्रभाव क्या होता है लोगों पर।'
हमने हामी भरी, 'अवश्य जाएँगे, यह तमाशा तो देखते लायक होगा।'
सो हम सुबह-सवेरे उठते ही सबसे पहले सेठ मटरूमल के यहाँ आ धमके। देखते क्या हैं कि सेठ मटरूमल जी का हँसते-हँसते बुरा हाल हो रहा है। बेबात हँस रहे हैं और हँसे जा रहे हैं। हमने खैरियत खैरसल्ला पूछी, बड़ी मुश्किल से हँसी के बीच बोले, 'यार, अपने मित्र छकड़ूमल जी हैं ना उनकी धर्मपत्नी का देहांत हो गया है रात। अभी-अभी सूचना मिली है। चलो, शोक व्यक्त करते आएँ दो मिनट को।'
हमने कहा, 'चलिए।'
ठहाका मारकर मटरूमल जी रिक्शा में बैठे और पहुँच गए छकडूमल के द्वार पर। काफ़ी लोग लोग इकट्ठे थे वहाँ। चेहरे पर दु:ख और आँखों में झूठे आँसुओं का सैलाब उमड़ पड़ रहा था।
मटरूमल ने पहुँचते ही ठहाका लगाया, 'हा-हा-हा, क्यों बे छकडूमल! क्या हुआ!'
छकडूमल ने मटरूमल को बेतहाशा हँसते हुए देखा तो आगबबूला हो गया। बोला-'मेरी पत्नी मर गई और तुम हँस रहे हो, शर्म नहीं आती तुम्हें।'
'शर्म नहीं आती तुम्हें!' पुन: ठहाका मारकर मटरूमल बोले, 'अबे उल्लू की दुम! धर्मपत्नी ही मरी है, धर्म तो नहीं मरा है अभी। यानी धर्मपत्नी का एक भाग जो पत्नी के रूप में था मर गया। वही मरा है ना, धर्म तो नहीं मरा।'
भीड़ इकट्ठी हो गई- 'मौत पर हँसते हो, शर्म नहीं आती तुम्हें!'
फिर ठहाका मारा मटरूमल ने- 'बोले, अबे रोना तो दकियानूसियों का काम है, रोने से मरने वाला जीवित थोड़े ही हो जाता है। हँसो कि हँसना आदमी का जन्मसिद्ध अधिकार है...।'
कई लोग उत्तेजित हो गए। एक आगे बढ़ा और सेठ मटरूमल का गिरेबान पकड़ते हुए बोला, 'हँसना आदमी का जन्मसिद्ध अधिकार है तो पिटना भी उसका जन्मसिद्ध अधिकर है।' कई जूते मटरूमल की गंजी खोपड़ी पर पड़े पर उनके ठहाके नहीं रुकने थे, न रुके। हमने जूतमपैजार का यह तमाशा देखा तो चोर की तरह वहाँ से दबे पाँव खिसक लिए। अब यह भगवान ही जाने कि बेचारे मटरूमल पर चढ़ी हँसी का भूत कब उतरा और कैसे उतरा पर हमें विश्वास हो गया कि गुटके ने अपना काम पूरा किया।
आगे बढ़े तो एक हड्डी विशेषज्ञ की क्लिनिक में काफ़ी लोगों की भीड़ जमा थी। देखते क्या हैं कि दुर्घटना में दोनों पैरों से अपाहिज एक नौजवान के सिरहाने खड़ा उसका बाप बेतहाशा ठहाके लगा रहा है ... ।
'अबे पैर ही तो टूटे हैं, जीवन की डोर तो नहीं टूटी है, घबड़ाता क्यों है। (ठहाका) धरती पर चलता तो दु:ख झेलता। अब पड़े रहकर सपने बुना कर सुंदर-सुंदर। (फिर ठहाका) अबे उल्लू जब लँगड़ी सरकारें चल सकती हैं तो तू क्यों नहीं चल सकता, लँगड़ा होकर। हा-हा। हँसो भाई, हँसो, हर दु:ख पर हँसो कि हँसना आदमी का जन्मसिद्ध अधिकार है।'
भीड़ में से आवाज़ आई, 'अबे तू बाप है या कसाई?'
हँसने वाले व्यक्ति ने फिर एक क़हक़हा मारा। डाक्टर ने आर्डर दिया, 'इसे बाहर निकालो क्लिनिक से।' कई लोगों ने उसे खींचकर बाहर निकालना चाहा। दोनों पक्षों में खींचातानी हुई और वही मारामारी का दृश्य उत्पन्न हो गया। हमने खैरियत इसी में समझी कि चुपके से चोर की तरह दबे पाँव वहाँ से खिसक लिए....।
आगे कहीं और जाने की हिम्मत नहीं हुई। शाम को डा.मेवाराम जी के यहाँ पहुँचे तो वहाँ ऐसे समाचारों का ढेर लगा हुआ था, जिनमें गुटका खाकर हँसने वालों की जमकर पिटाई हुई थी। कई लोग घायल हुए थे। अनेक स्थानों पर शांति-व्यवस्था भंग हो गई थी।
हमने कहा, 'भाई मेवाराम जी! गुटके में तो आपके कमी नहीं है कुछ। आदमी स्वयं ही नहीं हँसना चाहता, वह हँसते हुओं को देखना भी नहीं चाहता, इसलिए गड़बड़ हो गई है सारी।'
हमने देखा डा.मेवाराम जी चिंता में डूब गए हैं। इतने में ही शोर सुनाई दिया। क्लिनिक से बाहर निकलकर देखा। गुटका खाने वाले सभी व्यक्ति हाथों में बैनर लिए हुए थे। वे ठहाका मार गुटके पर पाबंदी लगाने की माँग करते हुए आगे बढ़ रहे थे। खतरा सामने था। कहीं भीड़ क्लिनिक पर आकर तोड़-फोड़ न करे, इसलिए हम दोनों क्लिनिक में ताला ठोंककर छत पर चढ़ गए ... उत्तेजित जुलूस धीरे-धीरे आगे बढ़ गया।
खतरा टला तो डा. मेवाराम बोले, 'आदमी जब रोना ही चाहता है तो हम क्या कर सकते हैं? महँगाई रुलाती है, बेरोज़गारी रुलाती है, टैक्स रुलाते हैं, दिन पर दिन घटती हुई आय रुलाती है, अपराध रुलाते हैं, सरकार रुलाती है तो संतुष्ट रहते हैं पर जब डा.मेवाराम हँसाना चाहता है तो बबाल उठ खड़ा होता है।'
मेवाराम ने लंबी ठंडी साँस खींची और फिर ठहाकामार गुटके का एक पाउच अपने गले से नीचे उतार लिया। अभी उन पर हँसी का दौरा पड़ना शुरू ही हुआ था कि अचानक एक रोगी अपने तीमारदारों सहित क्लिनिक में दाखिल हुआ किंतु यह देखते ही रफूचक्कर हो गया कि डाक्टर हँसी के मारे लोटपोट हो रहा है। हमने कहा, 'तुम ठीक कहते हो डाक्टर। आदमी को हँसी की ज़रूरत नहीं सहानुभूति की ज़रूरत है और सहानुभूति की भावना जाग्रत करने के लिए तुम्हें एक और बूटी की खोज करनी होगी।' हमने देखा तो डाक्टर हमारी बात सुनकर हँसे जा रहा है। हँसे ही जा रहा है बस।
डा. गिरिराजशरण अग्रवाल
16 साहित्य विहार, बिजनौर
09368141411

सोमवार, 17 अगस्त 2009

दरोगा रुस्तम अली

दरोगा रुस्तम अली अपने समय का अत्यंत काइयाँ, बल्कि आदमखोर क़िस्म का पुलिस अधिकारी रहा था। जहाँ भी रहा, उस क्षेत्र के अपराधी उसके नाम से यों काँपते रहे, जैसे आँधी में वृक्ष के पत्ते काँपने लगते हैं। पुलिस की भाषा में थर्ड डिग्री किस बला का नाम है और उसका प्रयोग किस प्रकार किया जाता है, शायद ही रुस्तम अली से अधिक कोई इस रहस्य को जानता हो। जब तक स्कूल में रहा, रुस्तम अली थर्ड डिग्री से ऊपर कभी नहीं गया और जबसे पुलिस की नौकरी में आया, अपनी परंपरा के अंतर्गत थर्ड डिग्री का ही प्रयोग करता रहा है लेकिन एक दिन सुनने में आया कि दरोगा रुस्तम अली का हृदय- परिवर्तन हो गया है, यों तो अब हमें किसी छोटे या बड़े परिवर्तन से आश्चर्य नहीं होता, क्योंकि हमारा देश पिछले कई दशकों से निरंतर परिवर्तन व धर्म-परिवर्तन आदि के बाद अब राजनीतिक दल, पदयात्रा व रथयात्रा छोड़कर परिवर्तन-यात्रा आयोजित करने पर उतारू हो गए हैं, पर इन सारे ही परिवर्तनों में हमें दरोगा रुस्तम अली के हृदय-परिवर्तन की घटना पर आश्चर्य हुआ। क्योंकि हमने सुन रखा था कि पुलिस और परिवर्तन में इसी प्रकार का वैर है, जैसा बाघ और बकरी में होता है। न तो बाघ ही अपना स्वभाव बदलता है और न बकरी ही अपनी प्रवृत्ति। किंतु दरोगा रुस्तम अली ने अचंभा कर दिखाया और अपना ऐसा ग़ज़ब का हृदय-परिवर्तन किया कि हम ही क्या, पूरा शहर सुनकर दंग रह गया।
हुआ यों कि भाई मुंगेरीलाल जी जब पहली बार जनसेवक बने, यानी एक वोट के रिकार्ड-तोड़ बहुमत से जीतकर संसद नामक देश की सबसे बड़ी पंचायत में पहुँचे तो सबसे पहले उन्होंने पुलिस का ओवर हॉल करने की ठानी। बहुत सुन रखा था मुंगेरीलाल जी ने कि दरोगा रुस्तम अली अभियुक्तों, आरोपियों के साथ अत्यंत क्रूर और अमानवीय व्यवहार करता है। वह किसी को पकड़ता है, तो उसको जेल भेजे बिना छोड़ता ही नहीं लेकिन पकड़ने से जेल भेजने के बीच अभियुक्त पर जो बीतती है, वह या तो अभियुक्त ही जानता है या दरोगा रुस्तम अली। हो सकता है थोड़ा-बहुत ऊपरवाला भी जानता हो, लेकिन ज़्यादा नहीं, क्योंकि अपने थर्ड डिग्रीवाले करतबों को दरोगा रुस्तम अली इतना गुप्त रखता था कि कानों-कान किसी को भनक ही नहीं लग पाती थी। कभी-कभी पुलिस हिरासत में हुई किसी अभागे अभियुक्त की मृत्यु हो जाए तो पता चलता था कि दरोगा रुस्तम अली ने अपनी रुस्तमी दिखाते हुए कुश्तम-कुश्ती में एक शातिर अभियुक्त को चित कर दिया, यानी उस बाँस को ही तोड़-मोड़कर ठिकाने लगा दिया, जिससे बाँसुरी बन सकती थी और बजाई जा सकती थी।
इत्तेफ़ाक यह था कि अपराधों की बंसी बननेवाले जितने बाँस थे, वे सब थे मुंगेरीलाल जी के पाले-पोसे। तो साहब हुआ यह कि एक वोट के भारी बहुमत से जीतकर भाई मुंगेरीलाल जी जैसे ही संसद से शपथ लेकर लौटे, जा धमके पुलिस थाने में। देखा दरोगा रुस्तम अली ने उसके चुनाव-क्षेत्र से पकड़कर लाए गए एक शातिर अभियुक्त को छत के पंखे से टाँग रखा है और नीचे से आग जलवाकर उसे हाँडी की तरह पकवा रहा है। भाई मुंगेरीलाल जी ने देखा तो उनकी सहनशक्ति जवाब दे गई। सोचा, ऐसी भयंकर क्रूरता! राक्षस भी नहीं करते होंगे, ऐसा अत्याचार तो।
धड़ाम से अपने-आपको कुर्सी पर गिराते हुए भाई मुंगेरीलाल बोले, 'शर्म नहीं आती, रुस्तम अली। यह क्या शैतानी कर रहे हो। आदमी हो कि जानवर! कान खोलकर सुन लो, हमारे रहते यह सब नहीं चलेगा अब।'
रुस्तम अली ने पहले पंखे से लटके हुए अभियुक्त की ओर देखा और फिर भाई मुंगेरीलाल जी की ओर। कोई उत्तर सोच ही रहे थे कि भाई मुंगेरीलाल जी वन वे ट्रेपि क की तरह फिर शुरू हो गए-
'तुम जानते हो रुस्तम अली, अब समय बदल गया है। यह आज़ाद भारत है। अब पुलिसवालों को अँग्रेज़ों के ज़मानेवाला चरित्र बदलना होगा। यह जंगलीपन छोड़ना होगा। सभ्यता और शिष्टाचार सीखने होंगे। नहीं सीखोगे तो एक मिनट में वर्दी उतरवाकर रखवाली जाएगी। किस अधिकार से तुमने इस बेचारे को पंखे से बाँधकर ऊपर लटकवा रखा है। कौनसा क़ानून ऐसा है, जो तुम्हें नीचे से आग जलाकर इसे भूनने की अनुमति देता है।
दरोगा रुस्तम अली अपनी तलवार मार्का मूँछों के बीच धीमे से हँसकर बोला, 'बात यह है एम.पी. साहब, यह साला बहुत शातिर किस्म का बदमाश है। पिछले दिनों रजवाहे के निकट जो बस लुटी थी, उसका मुख्य अभियुक्त यही था। पर साला न तो माल ही बरामद करा रहा है और न अपने सहयोगियों का नाम-पता बताने को तैयार है। इतना कहकर दरोगा रुस्तम अली को फिर जो ताव आया तो मुंगेरीलाल जी की उपस्थिति का लिहाज किए बिना उठा और लाठी से उसकी पीठ उधेड़ते हुए बोला, 'क्यों बे ....पिल्ले! बताता है कि नहीं बताता है! साला ....का खसम!'
मुंगेरीलाल जी ने यह दृश्य देखा तो उनका मन करुणा से भर गया। बोले, 'क्यों रे दरोगा रुस्तम अली, जो बात तुम डंडे के ज़ोर पर पूछ रहे हो, वह बात भलमनसाहत से भी तो पूछी जा सकती है। इसे तुरंत पंखे से खोलो, नहीं तो मैं गृहमंत्री से तुम्हारी शिकायत करूँगा, मिनट-भर में छटी का दूध याद दिला दूँगा, बच्चू।'
रुस्तम अली ने देखा कि एम.पी. साहब लावे की तरह फट पड़ने को तैयार हैं तो उसने चीखकर पहरे के सिपाही को आवाज़ दी। बोला, 'अभियुक्त को खोल दो और सम्मानपूर्वक इसे थाने के द्वार तक छोड़ आओ।'
पहरे के सिपाही ने आदेश की तामील की। मुंगेरीलाल जी कुर्सी से उठे। दरोगा रुस्तम अली से हाथ मिलाया। बोले, 'आज़ाद भारत में पुलिस को थोड़ा सभ्य तो होना ही चाहिए, अब आप किसी और वक़्त उसे बुलाएँ और दुलार-पुचकारकर पूछें। सब कुछ उगल देगा यह।'
मुंगेरीलाल जी थोड़ा रुके, फिर बोले, 'याद रखो रुस्तम अली, जब तक सीधी उँगलियों से घी निकल सकता हो, तब तक अपनी उँगलियों को टेढ़ा नहीं करना चाहिए। एक तुम हो कि अपनी उँगलियाँ ही सीधी नहीं करते हो कभी। टेढ़ी ही रखते हो।'
दरोगा रुस्तम अली भी एक काइयाँ था। बोला, 'अब अपनी उँगलियाँ सीधी ही रहेंगी एम.पी. साहब, टेढ़ी नहीं होंगी कभी। आप चिंता न करें जी।'
बात आई-गई हो गई। क्षेत्र में चर्चा चली कि दरोगा रुस्तम अली का हृदय-परिवर्तन हो गया है। अब थाने में किसी अपराधी पर कोई सख्ती नहीं हो रही है। अभियुक्तों को सम्मानपूर्वक बुलाया जाता है। सम्मानपूर्वक बिठाया जाता है। प्रेमपूर्वक पूछताछ की जाती है और अंत में सम्मानपूर्वक उन्हें रुखसत कर दिया जाता है। हर ऐसी घटना के बाद दरोगा रुस्तम अली अपनी केस डायरी (सी.डी.) में यह इबारत दर्ज करता है-
'एक 'शातिर' अभियुक्त को, जिसका नाम अमुक पुत्र अमुक है और जो अमुक स्थान का मूल निवासी है नामज़द रिपोर्ट के आधार पर अमुक स्थान से गिरफ्तार किया। अभियुक्त को थाने में लाकर आदरपूर्वक पूछताछ की गई। उससे करबद्ध होकर पूछा गया कि बंधुवर! अगर अमुक चोरी में जाने या अनजाने आपका हाथ रहा है तो आप निस्संकोच हमें बता दें। हम आपको कुछ नहीं कहेंगे, बल्कि एक गिलास गर्मा-गर्म दूध पिलाएँगे और चालान कर जेल की हवा खाने के लिए भेज देंगे, किंतु अभियुक्त अपराध से इंकार करता रहा। हमने उसे देसी शराब की एक थैली भेंट की, पट्ठा एक ही साँस में पूरी थैली चढ़ा गया, पर मुँह से कुछ नहीं फूटा। अतएव उसे नशे की हालत में झूमता-झामता थाने से जाने दिया गया।'
दरोगा रुस्तम अली की केस डायरी ऐसी ही घटनाओं से भरती चली गई। एक दिन इत्तेफ़ाक ऐसा हुआ कि सांसद मुंगेरीलाल जी के घर ही चोरी की वारदात हो गई।
मुंगेरीलाल जी के घर चोरी हुई तो वे दौड़े-दौड़े थाने आए। छूटते ही एक अदद रिपोर्ट दर्ज कराई। रिपोर्ट में एक लाख रुपये का माल चोरी हो जाने का दावा किया गया था। रिपोर्ट लिखकर भाई मुंगेरीलाल जी सीधे दरोगा रुस्तम अली के पास पहुँचे, पूरा माजरा उन्हें सुनाया।
दरोगा रुस्तम अली की आँखों में चोरी की बात सुनकर चमक-सी आ गई। बोला, 'पर एम.पी. साहब, यह एक लाख का माल आपके पास आया कहाँ से? जहाँ तक हमारी जानकारी है, चुनाव तो आपने अपनी हवेली बेचकर लड़ा था। फूटी कौड़ी तो रही नहीं थी आपके पास, फिर साल-भर के अंदर-अंदर!'
मुंगेरीलाल जी ने दरोगा रुस्तम अली की बात सुनी तो मारे ताव के लाल भभूका हो गए। बोले, 'तुम पुलिस दरोगा हो या इनकमटैक्स अधिकारी। अपने अधिकार-क्षेत्र से बाहर जाने की कोशिश मत करो, वर्ना हमसे बुरा कोई नहीं होगा, चौबीस घंटों के अंदर चोरी खुल जानी चाहिए, अभियुक्त गिरफ्तार हो जाने चाहिए तथा माल बरामद हो जाना चाहिए। नहीं तो बिस्तर बाँध लो और यहाँ से दफ़ा होने के लिए तैयार हो जाओ।'
दरोगा रुस्तम ने अली मुंगेरीलाल जी की धमकी सुनी तो डरा नहीं। बोला, 'एम.पी. साहब। घबराइए मत, अभी पकड़ता हूँ अभियुक्तों को, लेकिन आप ज़रा अपना शक-वक तो बताएँ, कौन हो सकता है आपके यहाँ चोरी में शामिल।'
मुंगेरीलाल जी ने संदेह व्यक्त किया, 'हमारा खयाल है, चोरी में वही अभियुक्त शामिल था, जिसे उस दिन तुमने पंखे से बाँधकर लटका रखा था। हमारे सूत्रों का कहना है कि चोरीवाली रात से पहलीवाली रात में वह थाने आया था। वह थाने में देखा गया है।'
ज़रूर देखा गया होगा मुंगेरीलाल जी, ज़रूर देखा गया होगा। हम इससे इंकार नहीं कर रहे हैं, कई बार अपराधी थाने की सुनगुन लेने चुपके से आ जाते हैं, यह सूँघने के लिए कि किस पुलिसकर्मी की ड्यूटी कहाँ लगाई गई है। पर आप चिंता न करें। अभी सब-कुछ हुआ जाता है चुटकी बजाते।
इतना कहकर दरोगा रुस्तम अली ने दो सिपाहियों को बुलाया और आदेश दिया की खचेडू को पकड़ लाओ। छंगा पुत्र खचेडू पकड़कर लाया गया।
दरोगा रुस्तम अली ने उसे अपने बराबर वाली कुर्सी पर जगह दी। विनम्रतापूर्वक उससे हाथ मिलाया। बोला, 'भाई छंगा जी महाराज, यह जो एम. पी. साहब बैठे हैं न, मुंगेरीलाल जी, रात इनके यहाँ एक लाख रुपए की चोरी हुई है। इनका खयाल है कि इस चोरी में आपका हाथ है। हम आपसे हाथ जोड़कर निवेदन करते हैं कि चोरी में शामिल अपने दीगर साथियों का नाम बताएँ, माल बरामद कराएँ और हमारे साथ एक कप चाय पीकर जेल चले जाएँ। इस सारी महरबानी के लिए हम आपके बहुत-बहुत आभारी होंगे।'
दरोगा रुस्तम अली की दिल को छू लेने वाली अपील सुनकर छंगा पुत्र खचेडू ठहाका मारकर हँसा। बोला, 'कैसी बात कर रहे हो दरोगा साहिब! हम और चोरी! वह दिन गए, जब हम यह नेक काम किया करते थे, अब तो हम गऊ हो गए हैं, गऊ।'
दरोगा रुस्तम अली ने एक दो बार और इसी तरह विनम्रतापूर्वक उससे चोरी का पता पूछा और फिर उसे सम्मान के साथ थाने से रुखसत कर दिया। उस दिन की तारीख में दरोगा ने अपनी केस डायरी में लिखा-
एक शातिर अभियुक्त छंगा पुत्र खचेडू को श्री मुंगेरीलाल जी एम.पी. के यहाँ चोरी के इल्जाम में पकड़ा, उससे प्रेमपूर्वक पूछताछ की, चाय आदि से उसकी खातिर की, पर वह नहीं खुला। जिस पर उसे थाने से बाइज़्ज़त रुखसत कर दिया गया।'
मुंगेरीलाल जी कई दिन तक थाने के चक्कर काटते रहे पर कुछ हुआ नहीं। दरोगा रुस्तम अली अभियुक्तों को पकड़ता रहा, छोड़ता रहा।
इस घटना को कई साल गुज़र गए, पर आज तक हम यह पै़ सला नहीं कर सके कि इनमें से कौन सही था, भाई मुंगेरीलाल जी या दरोगा रुस्तम अली। क्योंकि यह लोकतंत्र है ना, यह ऊँट की तरह है और इसकी कोई कल सीधी नहीं है।
डा. गिरिराजशरण अग्रवाल
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